जात पवनसुत देवन्ह देखा

 


जात पवनसुत देवन्ह देखा 



तो जयंत का परिणाम देख कर डरे देवता - अब सुरसा को भेजते हैं - सर्पां की माता सुरसा सर्पो का भोजन ही होता है। पवन हवा तो नागमाता परीक्षक बनकर आयी।
‘‘जात पवनसुत देवन्ह देखा । 
जानैं कहुँ बल बुद्धिविषेखा ।।’’
‘‘सुरसा नाम अहिन्ह कै माता । 
पठइन्हि आइ कही तेहि बाता ।।’’
‘‘आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा । 
सुनत वचन कह पवनकुमारा ।।’’
रावण का प्रताप इतना आतंकित रखता था देवों को कि सूर्य चन्द्र पवन - वरुण - कुबेर, अग्नि, काल, यम जैसे अधिकारी सामर्थ्यवान देवता भी उसके वश में रहते थे, सो आशंकित हो गये थे सभी देवता कि यह वायु के निमित्त से उत्पन्न बातजात हनुमान यूँ तो अत्यन्त विलक्षण औेर चमत्कारी रहा है यह हम जानते हैं किन्तु दशमुख की लंका में जाने को प्रस्थित है यह क्या इसमें इतना कौशल, विवेक, साहस बुद्धि है कि यह लंका सरीखे स्थान पर सफल हो सके जहाँ देवता दिग्पाल भी भयभीत रहते हैं। सो सुरसा परीक्षक बन कर मार्ग में आती है व स्पष्ट कहती है कि देवताओं ने आज आहार के रूप में मुझे वायु पुत्र हनुमान को ही भक्षण करने को भेजा है - हनुमानजी समझ गये कि यह सात्विक बाधा है स्वयं देवताओं द्वारा खड़ी की गई परीक्षा शैली रूपी सुरसा माता की। तो कहा कि ठीक है कि मैं आपका आहार बनूँगा। यह मेरा आपसे वचन है किन्तु अभी मेरी सर्व प्राथमिकता है कि मैं श्री राम का कार्य करके आ जाऊँ माता सीता की सूचना उन्हें दे दूँ। फिर मैं आकर आपके बदन में स्वतः ही प्रवेश कर जाऊँगा। सत्य की शपथ लेते कहते हैं कि मैं आपको धोखे में नही रखूँगा। चूँकि सुरसा देवों द्वारा आहार की बात कह चुकी है तो माता का सम्बोधन भी देते हैं - ‘‘जान दे माई’’। किन्तु सुरसा ने बात नहीं मानी कारण कि वह तो हनुमान के बुद्धि कौशल की परीक्षा लेना चाहती थीं किन्तु नागों की माता भी बुद्धिमती है सो नहीं मानी पुनः नाग माता है तो क्रूर तो है ही तुलसीजी बता ही चुके हैं कि ‘सुरसा’ है कौन - ‘‘सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। सीता जी की शोध यात्रा श्री राम का व्यक्तिगत कार्य ही नहीं वरन समस्त सृष्टि कल्याण देवों के कल्याण का ही कार्य इसमें निहित था तो हनुमानजी समझ गये थे कि यह परीक्षा है वरना पक्षिराज गरुड़ की बहन है सुरसा तो गरुड़ जी को ‘‘गरुड़ महाग्यानी गुन रासी’’ कहा गया है किन्तु सात्विक बाधा है परीक्षक की बाधा और यदि वह पहले ही न बताती कि उन्हें देवताओं ने भेजा है तो हो सकता था कि एकमात्र ‘महाबली ख्यात’ हनुमानजी उनका वध ही कर डालते।
बताते हैं कि मैं सीता जी की सुधि के ‘राम काज’ को जा रहा है प्रभु कार्य - वह भी नारी का तुम भी नारी ही हो - लौटकर समाचार दे दूँ तब मुझे खा लेना। लेकिन सुरसा नहीं मानती है कारण कि उन्हें भोजन तो करना है नहीं परीक्षा लेनी है हनुमानजी जान गये सो स्पष्ट कह भी दिया कि तो फिर मुझे निगल क्यों नहीं रही हो - निगल लो ‘‘ग्रससि न मोहि कहेऊ हनुमाना।।’’ सुरसा सर्पां की माता है कौन है सुरसा ? दक्ष प्रजापति की आठ कन्याएेंं अदिति दिति दनु कालिका ताम्रा क्रोधवशा मनु और अनला थीं। ये सभी कश्यप ऋषि को ब्याही गई। ताम्रा के क्रौची मासी श्येनी धृतराष्ट्री और शुकी ये पाँच कन्यायें हुई। शुकी से नाता नता से विनीता का जन्म हुआ। विनीता के दो पुत्र हुये। अरुण और गरुड़ और दो कन्यायें हुई सुरसा और कद्रू - इस नाते सुरसा गरुड़ की बहन है। - ‘‘विनता व शुकी पौत्री कद्रश्च सुरसा स्वसा।।’’ अब सुरसा ने विशाल हनुमानजी को निगल लेने के लिये अपने शरीर का विस्तार योजन भर कर लिया। और हनुमानजी तो वायु पुत्र ही हैं सो उन्हांने अपना शरीर दोगुना कर लिया। कौतुक लीला परीक्षा प्रारम्भ हो गयी।
हतप्रभ सुरसा जी ने अपने मुख को सीधा सोलह योजन का फैला लिया तो पवनपुत्र जी बत्तीस योजन के फैल गये। मूलतः सर्प भी शरीर में वायु को भरकर ही शरीर को फुलाते हैं सो सुरसा व हनुमानजी दोनां ही पवन के माध्यम से ही अपने शरीर बढ़ा रहे हैं। ‘कपि’ शब्द यहाँ विशेष रूप से प्रयोग किया गया है - कपि अर्थात चपलता चंचलता। सुरसा डस नहीं सकती थी वरना प्रारम्भ में ही ऐसा करती वह तो निगलने के लिये फन फैलाती जा रही थी हनुमानजी ना उसका तिरस्कार कर रहे थे ना ही स्वीकार कर रहे थे नारी का देवी का सम्मान भी उन्हें करना था प्रभु का काज तो सर्वोपरि था ही। ध्यान दें श्री हनुमानजी को सारी सिद्वियाँ जन्म से ही प्राप्त हैं तो आप यहाँ ‘महिमा सिद्वि’ से विस्तार करते चले जा रहे थे - पूरे सौ योजन के सागर जितनी हो गयी सुरसा तब श्री हनुमानजी ने ‘‘अणिमा सिद्वि’’ से स्वयं को अत्यन्त छोटा बना लिया।