जिमि अमोघ रघुपति कर बाना
सुन्दर काण्ड का सुन्दर प्रारम्भ है -
‘‘जामवन्त के बचन सुहाये ।
सुनि हनुमंत ह्नदय अति भाये ।।’’
‘‘तब लगि मोहि परखेहु तम्ह भाई ।
एहि दुख कन्द मूल फल खाई ।।’’
‘‘जब लगि आवौं सीतहि देखी ।
होइहि काजु मोहि हरश बिसेखी ।।’’
‘‘यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा ।
चलेउ हरषि हियें धरि रघुनाथा ।।’’
‘‘सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर ।
कौतुक कूदि चढे़उ ता ऊपर ।।’’
‘‘बार-बार रघुबीर संभारी ।
तरकेउ पवन तनय बल भारी ।।’’
स्मरण करें - श्री हनुमानजी महाराज का सुन्दर चरित प्रारम्भ ही होता है वशिष्ठ जाम्बवान के वचनों से ‘‘राम काज लगि तब अवतारा’’ तथा ‘‘कवन सो काज कठिन जग माहीं।।’’
जामवन्त बुद्धि के प्रतीक हैं तो श्री हनुमानजी ‘विश्वास’ के प्रतीक- श्री हनुमानजी को ये वचन अत्यन्त ‘सुहाये’ अर्थात प्रिय लगे। कैसे बचन कहे जामवन्त जी ने श्री हनुमानजी की प्रशंसा - जिसमें उनके दिव्य गुणों का वर्णन किया - प्रशंसा तो प्रिय लगती ही नहीं श्री हनुमानजी को। निरभिमानी बजरंग बली किन्तु जब उन्हांने कहा कि ‘‘राम काज लगि तब अवतारा’’ - तब संशय दूर हो गया - ध्यान दें जामवन्त जी को ब्रह्मा जी का अवतार कहा गया है तो वही तो जानते थे कि किसका अवतरण किस उददेश्य से हुआ है - मारुति कहते हैं सभी साथियों से कि आप लोगों को भले ही दुःख सहना पडे़ - किन्तु यहाँ आप लोग तब तक मेरी प्रतीक्षा कन्द मूल फल खाकर कीजियेगा जब तक कि मैं सीता जी को देखकर लौट न आऊँ। ‘राम काज’ अवश्य होगा - कारण कि मुझे विशेष हर्ष की अनुभूति हो रही है। तो सन्देश यही कि प्रारम्भ में कभी भी अभ्रयता ना रहे - मन में सर्वदा हर्ष हो तो कार्य के सिद्ध होने की सूचना है यह।
यह हनुमानजी का आश्वासन था साथी वानरों को जिससे वह विलम्ब होने पर सुग्रीव जी के भय से इधर-उधर न भाग जाये। ध्यान दे सुग्रीव जी (कपीश) ने कहा था सभा में कि
‘‘देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई।।’’
- संपाती कह चुके हैं कि -
‘‘जो नाघई सत जोजन सागर ।।
करइ से ‘राम काज’ मति आगार ।।’’
और वही कहते हैं श्री हनुमानजी जो प्रस्थान के समय बानर दल ने किया था - यहाँ वह भी सभी को यथोचित सम्मान देने के लिये - उन्हें मस्तक नवाते हैं। किष्किन्धा से प्रवाण करते समय सभी ने - वहाँ प्रभु का स्मरण कर - साथियों को प्रणाम करते प्रस्थान किया था।
‘‘आयुषु माँगि चरन सिरु नाई ।
चले हरशि सुमिरत रघुराई ।।’’
(4/22/8 किष्किन्धा)
किसी भी विशिष्ट कार्य का निष्पादन पूर्ण करने के लिये उपरोक्त शुभ कार्यों को करना उत्तम मान्य है। ध्यान दें यह है श्री रामदूत का प्रस्थान - सागर तट पर एक ‘सुन्दर पर्वत’ पर हनुमानजी चढ़ गये - पर्वत अपने आकार प्रकार में एक से ही होते या दिखते हैं कि यहाँ तुलसीजी ने वर्णन किया है कि एक - ‘भूधर सुन्दर’ - कारण कि नाम तो भले ना लिखा हो तुलसी जी ने ‘‘बाल्मीक रामायण’’ व ‘‘अध्यात्म रामायण’’ में इस पर्वत का नाम महेन्द्र’’ महेन्द्र द्रिशिरो गत्वा व भूवादभुत दर्शन।’’ और स्वयं को और भी प्रेरक बनाने को प्रभु नाम का बारम्बार स्मरण करने लगे हनुमानजी । स्वयं अत्यन्त विशालाकार हैं हनुमानजी ! यह स्मरण रखें -
‘‘मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा ।।’’
जिस प्रकार भगवान राम का बाण अमोघ है - वायु वेग से अपने गन्तव्य तक जाने वाला - उसी प्रकार वह भी वायु वेग से रावण पालित लंकापुरी को जा रहे हैं - बाल्मीकि वर्णन करते हैं कि -
‘‘यथा राघवनिर्मुक्तः शरः श्वसर्नावक्रमः गच्छेत तद्वह गमिष्यामि लंका रावण पालिताम् ।।’’
(बा0 रा0 5/1/40)
तो ‘सुन्दर’ पर्वत (महेन्द्र पर्वत) पर चढ़ते हैं तथा प्रभु के ‘अमोघ’ बाण के समान चले श्री हनुमानजी ! ‘अमोघ’ का अर्थ होता है - ना चूकने वाला - अचूक - अर्थात यात्रा का प्रारम्भ अमोघ बाण की भाँति हुआ है - रामायण में अनेक प्रकार के बाणों का वर्णन आया है। आग्नेय-बाण, वरुण-बाण, वायव्य-बाण, ब्रह्मास्त्र आदि - तो सर्वविदित है ही ‘मानस’ में दो अन्य विलक्षण बाणों का उल्लेख हुआ है -एक बाण तो यही है ‘अमोघ बाण’ दूसरा है - बिना फल वाला बाण - इन्हीं का संधान करने भगवान राम ने विश्वामित्र जी के यज्ञ में विघ्न डालने वाले ‘मारिच’ को पस्त किया था - जो बाद में मायामृग बन कर सीताहरण में निमित्त बना था - दूसरा बाण भरत जी ने - श्री हनुमानजी पर संधान किया था और पर्वत उसी बाण पर लटका रहा - श्री हनुमानजी धरती पर आ गये थे। अमोघ बाण की तीन विशेषतायें होती हैं -
1. वायु वेग से प्रहार करना व उसी वेग से वापस भी आ जाना।
2. अचूक निशाना - लक्ष्य पूर्ण करना और
3. शत्रु पर प्राणघातक प्रहार।
सुनील गोम्बर
इन्दिरा नगर, लखनऊ